देश

चुनावों में धन बल और नशा

देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का महाकुंभ चल रहा है। पंजाब और उत्तराखंड के चुनाव संपन्न हो गए। उत्तर प्रदेश में बाकी चरणों की प्रक्रिया चल रही है। अब चिंता और चिंतन का विषय है कि पंजाब में मतदान लगभग 71 प्रतिशत हुआ। इसका सीधा अर्थ यह है कि साठ लाख से कुछ ज्यादा लोगों ने मतदान नहीं किया। इसमें बहुत से ऐसे हो सकते हैं जो अस्पतालों में हैं। नौकरी या पारिवारिक दुख-सुख के लिए अपने घरों से बहुत दूर हैं। पर प्रश्न यह है कि जो लोग पूरी तरह स्वस्थ हैं, घरों में बैठे हैं, केवल चुनावी जमघट से दूर अपने सुख-सुविधा में मस्त या राजनेताओं की कारगुजारी से दुखी रहे, उन्होंने क्यों वोट डालना भी उचित नहीं समझा। एक वर्ग वह भी है जिसे दो समय की रोटी ही मुश्किल से मिलती है। वह भी अधिकतर चुनावों से दूर रहने को विवश है।
वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान ज्यादा हुआ। इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण मतदाता जागरूक हैं और शहरी मतदाता इसका महत्व नहीं समझ पा रहे। असहमति पर बहुत से लोग जाकर नोटा का बटन दबा सकते थे। अब प्रश्न यह है कि जो लोग मतदान नहीं करते वे कैसे कह सकते हैं कि उनका प्रतिनिधि पंजाब के लिए, जनता के लिए सही काम कर रहा है या नहीं।
वहीं दूसरी ओर, जो चुनावी वीर जनप्रतिनिधि बनने के लिए समर में उतरे हैं उन्होंने भी करोड़ों रुपये और शराब की लाखों बोतलें वोट खरीदने के लिए दांव पर लगा दीं। जिन लोगों ने हजार-पांच सौ रुपये लेकर पूरे परिवार का मतदान उनके पक्ष में कर दिया, जिनसे चुनावी रिश्वत ली थी तो आखिर यह चुने हुए जनप्रतिनिधि उनके हित का ध्यान क्यों रखेंगे?
अब प्रश्न चुनाव आयोग से है कि जो पर्यवेक्षक चुनावी प्रक्रिया पर तीसरी आंख से नियंत्रण करने के लिए भेजे गए उन्होंने यह क्यों नहीं देखा कि मतदाताओं को खरीदने का काम अब रात के अंधेरों में नहीं, दिन में भी हो रहा है। क्या चुनाव आयोग उम्मीदवारों द्वारा दिए गए खर्च विवरण से संतुष्ट हो जाएगा? जो सीमा चुनाव खर्च के लिए तय की थी क्या उसी सीमा में प्रत्याशी खर्च कर रहे हैं। सडक़ों पर लगे होर्डिंग्स, झंडे, बैनर तथा अन्य सामग्री उस खर्च का मुंह बोलता उदाहरण है जो चुनाव आयोग द्वारा तय है। कानून के दायरे में तो नहीं आता पर समाज के लिए यह आवश्यक है कि चुनाव के पश्चात पर्यवेक्षक सभी उम्मीदवारों को उसी स्थान पर ले जाएं जहां उन्होंने चुनाव से पहले माथा टेका था और यह शपथ लें कि न चुनावी रिश्वत दी है, न शराब बांटी है और खर्च उतना ही किया है, जितना चुनाव आयोग को लिखकर दिया है। शायद ही कोई इस परीक्षा के लिए तैयार हो, पर जो काम चुनाव आयोग को सौंपा गया है वह क्यों नहीं हो रहा। यद्यपि यह प्रश्न अधिक उचित नहीं है, लेकिन होना यही चाहिए। आज के विज्ञान के युग में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जिस मतदाता को मजबूरी हो या जरूरत से अपने शहर से बाहर जाना पड़ता है तो उसे ऑनलाइन वोट डालने की सुविधा अगले चुनाव तक मिल सके। साथ ही ऐसी व्यवस्था भी हो कि अकारण वोट न डालने वालों की जवाबदेही तय की जा सके। जनता को जागरूक करके ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्वस्थ रखा जा सकता है।

 

लक्ष्मीकांता चावला