उत्तराखण्ड

विपक्ष की हाय तौबा से भाजपा को फायदा

कांग्रेस सहित लगभग सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं के ऊपर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चल रही है। लगभग सभी के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों- सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कार्रवाई भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में हो रही है। दिलचस्प बात यह है कि एकाध अपवादों को छोड़ दें तो गिरफ्तारी किसी की नहीं हुई है। उलटे जो लोग पहले से केंद्रीय एजेंसियों की जांच के दायरे में थे उनकी रिहाई हो गई है। केंद्र की पिछली यूपीए सरकार के समय 2जी घोटाले का सबसे बड़ा हल्ला मचा था लेकिन इसके सारे आरोपी सीबीआई की विशेष अदालत से बरी हो गए हैं। बाकी घोटालों जैसे कोयला घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, एंट्रिक्स-देवास घोटाला आदि की भी कहीं चर्चा नहीं होती है। विपक्ष के नेताओं की नए नए मामलों में जांच चल रही है और सबके सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी हुई है।
यंग इंडियन और एसोसिएटेड जर्नल्स के केस में सोनिया और राहुल गांधी दोनों उलझे हैं लेकिन केंद्रीय एजेंसियां उनके साथ साथ मल्लिकार्जुन खडग़े और पवन बंसल से भी पूछताछ कर रही हैं। मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडीज जब तक जीवित थे, तब तक उनसे भी पूछताछ होती थी। बरसों से यह मामला एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का दायरा कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक है। क्रिकेट एसोसिएशन और बैंक घोटाले में कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला दोनों से पूछताछ हुई है तो केरल के मुख्यमंत्री तक सोने की तस्करी की जांच पहुंची है। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी यानी शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस के कोई 14 नेताओं और मंत्रियों के खिलाफ जांच चल रही है तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी व उनकी पत्नी सहित तृणमूल के एक दर्जन नेताओं पर जांच चल रही है। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, वाईएसआर कांग्रेस, एनसीपी, शिव सेना, डीएमके, अन्ना डीएमके से लेकर ईमानदार राजनीति करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी तक कोई भी दल नहीं है, जिसके बड़े नेताओं के खिलाफ जांच नहीं चल रही है या जिनके ऊपर केंद्रीय एजेंसियों की तलवार नहीं लटकी हुई है।
ध्यान रहे जांच सबकी चल रही है, छापे पड़ रहे हैं और पूछताछ भी हो रही है लेकिन गिरफ्तार सिर्फ दो-तीन नेता ही हुए हैं। वह भी पार्टी के सर्वोच्च नेता नहीं, बल्कि दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेता। क्या विपक्षी पार्टियों को इसका मतलब नहीं समझ रहा है? इसका सीधा मतलब यह है कि सरकार उनकी साख खराब करने का काम कर रही है। उनको डिसक्रेडिट किया जा रहा है। आम लोगों के मन में उनकी छवि बेईमान नेता की बनाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ झूठे मुकदमे हुए हैं। मामले पुराने भले हैं लेकिन केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का आधार है। आरोप छोटा हो या बड़ा लेकिन केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई ने आम लोगों के मन में विपक्ष के नेताओं की छवि खराब की है। पहले नेता पर आरोप लगते थे या गिरफ्तारी होती थी तो उनके प्रति लोगों की सहानुभूति बढ़ती थी, उनके समर्थक एकजुट होते थे लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। क्योंकि अब नेताओं पर कार्रवाई राजनीतिक मुकदमे में नहीं हो रही है, बल्कि भ्रष्टाचार के मुकदमे में हो रही है। नेता संपूर्ण क्रांति आंदोलन या अयोध्या आंदोलन, निजीकरण, उदारवाद, महंगाई आदि के विरोध प्रदर्शन में नहीं पकड़े जा रहे हैं। आंदोलन तो नेता लोग ट्विटर पर कर रहे हैं। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई तो कर चोरी, धन शोधन या भ्रष्टाचार से जुड़े दूसरे मामलों में हो रही है।
केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई पर विपक्षी पार्टियां जिस तरह से हाय तौबा मचा रही हैं उससे भी इसका प्रचार हो रहा है। एक तरफ सरकार और सत्तारूढ़ दल का मीडिया व सोशल मीडिया में प्रचार है और ऊपर से विपक्षी पार्टियां हाय तौबा मचा कर खुद ही इसका प्रचार कर दे रही हैं। कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेता केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई को बदले की कार्रवाई बताती हैं और एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगाती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहा था तब तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली ही सरकार थी! क्या कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने तब इन एजेंसियों का दुरुपयोग नहीं किया था? कांग्रेस ने तो अपने ही लोगों के खिलाफ इन एजेंसियों का खुला दुरुपयोग किया था। अपने पिता के निधन के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा कर रहे जगन मोहन रेड्डी को कांग्रेस ने बदले की कार्रवाई के तहत जेल भेजा था। कांग्रेस के समर्थन से झारखंड के मुख्यमंत्री बने मधु कोड़ा के खिलाफ कांग्रेस ने बदले की कार्रवाई की थी। सुरेश कलमाडी से लेकर मारन बंधुओं और कनिमोझी तक के खिलाफ क्या कांग्रेस के समय केंद्रीय एजेंसियों ने तटस्थता से काम किया था? क्या राज्यों में जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है वहां पुलिस निष्पक्ष और तटस्थ होकर काम कर रही है?
असल में विपक्षी पार्टियों ने जो बोया है वह काट रहे हैं। इस तर्क से उनका बचाव नहीं हो सकता है कि उनके समय केंद्रीय एजेंसियों का कम दुरुपयोग हुआ और अब ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है या उनके समय मामला ढका-छिपा था और अब खुलेआम हो रहा है। उलटे केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के खिलाफ विपक्षी पार्टियां जितना हाय तौबा मचाती हैं उतना उनका नुकसान होता है। लोगों में यह धारणा बनती है कि अगर नेता ने कोई गड़बड़ी नहीं की है तो कार्रवाई से क्यों डर रहा है। ध्यान रहे सीबीआई सहित तमाम केंद्रीय एजेंसियों के खिलाफ तमाम प्रचार के बावजूद उनकी साख बहुत खराब नहीं हुई है। इसका कारण यह है कि विपक्षी पार्टियां खुद भी हर घटना पर सीबीआई जांच की मांग करती रहती हैं। आम लोग भी कोई घटना होने पर सीबीआई जांच की मांग करते हैं। अदालतें किसी गंभीर मामले को उठाती हैं तो सीबीआई जांच की सिफारिश करती हैं।
एक सवाल यह भी उठता है कि केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई भाजपा नेताओं के खिलाफ क्यों नहीं होती है? कोई भी नेता भाजपा में शामिल हो जाता है उसकी जांच क्यों बंद हो जाती है? क्या भाजपा के सारे नेता दूध के धुले हैं? हकीकत यह है कि कोई दूध का धुला नहीं है। एक बार जिस पार्टी या नेता ने राज कर लिया या शासन में रह लिया उसके ईमानदार रहने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। लेकिन सवाल है कि भाजपा के नेता भी अगर बेईमान हों तो क्या इससे विपक्ष के नेताओं की बेईमानी ईमानदारी में बदल जाएगी? हो सकता है कि भाजपा के नेता भी बेईमान हों लेकिन इस वजह से कांग्रेस या दूसरे दलों के नेताओं पर होने वाली कार्रवाई को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। यह नैतिकता का सवाल हो सकता है लेकिन राजनीति नैतिकता से नहीं चलती है। सो, विपक्षी पार्टियों को हाय तौबा मचाने की बजाय जांच का सामना करना चाहिए, कानूनी लड़ाई लडऩी चाहिए और साथ साथ राजनीतिक लड़ाई भी लडऩी चाहिए ताकि उन्हें भी मौका मिले और वे भी अपने हिसाब से एजेंसियों का इस्तेमाल कर सकें।