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ओबीसी आरक्षण विधेयक: अन्य पिछड़ा वर्ग के सशक्तिकरण में सहायक

केन्द्र सरकार का 127वां संविधान विधेयक-2021 संसद के दोनों सदनों से सर्वसम्मति से पारित हो गया । इस बिल के खिलाफ एक भी वोट का नही पडऩा,  इस बात का संकेत है, कि सभी राजनीतिक दल इस विषय पर केन्द्र सरकार के साथ खड़े है । लोकसभा और राज्यसभा में जिस शांति के साथ विपक्ष ने इस बिल के समर्थन किया, उससे केन्द्र राज्य संबंधो को समझने एवं जन आकांक्षाओं का सम्मान करने का भाव सभी राजनीतिक दलो में परिलक्षित हो रहा है ।
गांधी जी के राजनीतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले कहते थे कि, भारतीय समाज को कुंठा से बचाने के लिए आरक्षण जरूरी है । इस बात को डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में आगे बढ़ाया, व तमाम बहस के उपरांत सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की सहमति बनी, संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 15 में आरक्षण का जिक्र है । अनुसूचित जाति को 15 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत आरक्षण सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में 10 वर्षो के लिए दिया गया था व 10 वर्षो के बाद हालात की समीक्षा करने की बात तय की गयी थी ।
पिछड़ी जातियों की सुनवाई सबसे पहले वर्ष 1953 में हुई जब प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर जो काका कालेलकर के नाम से प्रसिद्ध थे की अध्यक्षता में राष्ट्रीय  पिछड़ी जाति आयोग का गठन किया गया । आयोग ने बेहद वैज्ञानिक पद्धति से भारत के विभिन्न राज्यो में आयोग द्वारा प्रस्तावित पिछड़ी जातियों व शासन के पदाधिकारियों द्वारा किसी पिछड़ी जाति समूह की प्राप्त जानकारी के आधार पर व्यापक अध्ययन किया, वर्ष 1901, 1911, 1921 तथा 1931 की जनगणना में जातिवार आंकड़ों का संकलन किया गया था, व वर्ष 1956 में अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) वर्ग के लिए आरक्षण सिफारिश की गयी, जिसे उस समय की सरकार ने अस्वीकार कर दिया था ।
वर्ष 1979 में मोरारजीभाई की सरकार ने समाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग का गठन किया, मंडल आयोग ने 1980  में रिपोर्ट पेश की, जिसमें उन्होने आरक्षण के मौजूदा कोटा 22 प्रतिशत को बढ़ाकर 49.5 प्रतिशत करने की सिफारिश की तथा पिछड़ी जातियों की 2279 जातियों को चिन्हांकित किया। मण्डल आयोग का रिपोर्ट 10 वर्ष तक धूल खाता रहा। वर्ष 1990 मे विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिश को सरकारी नौकरी में लागू कर दिया ।
वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केन्द्र सरकार में सर्वोच्च-न्यायालय ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए अलग से आरक्षण को सही ठहराया परंतु आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत के भीतर रखने का फैसला दिया। परंतु तमिलनाडु में वर्ष 1989 से कुल आरक्षण की सीमा 69 प्रतिशत है, जो अभी भी कायम है। अगस्त, 1990 में मण्डल आयोग कि सिफारिश लागू होने के बाद से लगातार केन्द्रीय सरकार की नौकरिया में आरक्षण प्राप्त करने के लिए जातियों को अधिसूचित करने का कार्य केन्द्र सरकार द्वारा व राज्य सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण हेतु जातियों को अधिसूचित करने का कार्य राज्य सरकार द्वारा किया जाता रहा है ।
केन्द्र सरकार द्वारा  वर्ष 2018 में 123वां संशोधन लाया गया जोकि 102वां संशोधन के रूप में पास हुआ था, व इस संशोधन के द्वारा धारा 366 में 26 सी जोड़ा गया व केन्द्र व राज्य की अलग-अलग ओबीसी सूची बनाने का प्रावधान रखा गया, धारा-ए 338 में 338 बी को जोड़ा गया व राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया तथा 342-ए में 1 जोड़ा गया, जिसमें संघ सरकार की नौकरियों हेतु ओबीसी सूची में किसी जाति को अधिसूचित करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया व 342 ए-2 में राज्य सरकार की नौकरियों में आरक्षण हेतु ओबीसी सूची में किसी जाति को अधिसूचित करने का अधिकार राष्ट्रपति को होगा जब राज्यपाल, राष्ट्रपति से सिफारिश करेगा । गड़बड़ यहीं से शुरू हुई और राज्य सरकारों द्वारा इसका विरोध भी किया गया ।
महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठो को ओबीसी सूची में अधिसूचित कर आरक्षण दिया गया जिसे सर्वोच्च न्यायालय में जयश्री लक्ष्मीराव पाटिल बनाम मुख्यमंत्री महाराष्ट्र केस में चुनौती दी गई, सर्वोच्च न्यायालय ने 102 संवैधानिक संशोधन को कोट करते हुए महराष्ट्र में मराठा आरक्षण को गैर संवैधानिक मानते हुए निरस्त कर दिया व कहां कि किसी भी राज्य सरकार को ओबीसी सूची में नई जातियों के अधिसूचित करने का कोई अधिकार नही है, केन्द्र या राज्य सरकार की ओबीसी सूची में किसी नई जाति को अधिसूचित करने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को है। इस मामले पर केन्द्र सरकार ने पुर्नविचार याचिका दायर की परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका निरस्त कर दिया । इससे केन्द्र सरकार द्वारा 127वें संविधान संशोधन की भूमिका तैयार हो गई ।
संसद से 127वां संशोधन विधेयक को मंजूरी मिल गयी है, व शीघ्र ही राष्ट्रपति के हस्ताक्षर उपरांत भारत के सभी राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों को विभिन्न जातियों को ओबीसी की सूची में रखने का अधिकार मिल जायेगा । इस बिल के कानून बन जाने से निम्नलिखित लाभ होगा-
राज्यों को ओबीसी सूची बनाने का अधिकार प्राप्त होने से केन्द्र एवं राज्यों के मध्य तल्खी मे कमी आयेगी।
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को ओबीसी में शामिल करने का रास्ता साफ हो जायेगा।
हरियाणा में जाट समूदाय को ओबीसी में शामिल करने का रास्ता साफ हो जायेगा।
गुजरात मे पटेल समुदाय को ओबीसी में शामिल करने का रास्ता साफ हो जायेगा।
कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को ओबीसी में शामिल होने का मौका मिलेगा।
राजस्थान में गुर्जर समुदाय को ओबीसी में शामिल होने का मौका मिलेगा।
सभी राज्य सरकारें अब अपने-अपने राज्यों में अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) की सूची को संशोधित कर, नयी जातियों को अधिसूचित कर सकेगी ।
इस विधेयक के पारित होने से पूर्व व्यवस्था में निम्नलिखित परिर्वतन आयेगा-
राज्य सरकारों को अब अपनी ओबीसी सूची को लागू करने से पहले राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से परामर्श की आवश्यकता नही होगी।
सभी राज्य सरकारें एवं संघ शासित प्रदेश को ओबीसी सूची बनाने का पूर्ण अधिकार होगा, इसमें केन्द्र सरकार का किसी भी प्रकार से दखल नही होगा।
केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा अलग-अलग ओबीसी सूची का निर्माण कर क्रमश: राष्ट्रपति एवं राज्यपाल द्वारा अधिसूचित किया जायेगा।
127वां संविधान संशोधन विधेयक 105 वॉ संशोधन के रूप में पारित हो जायेगा, इसके उपरांत राज्य सरकारों द्वारा अरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने की मांग तेज की जायेगी। संविधान निर्माताओं का इरादा आरक्षण को अनंतकाल तक लागू करने का नही था, मगर समाज में व्याप्त जाति असंतुलन को हटाने के लिए सरकारों में गंभीर चिंतन एवं प्रयास की कमी रही है, इसलिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी का आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए, जब तक उनको अपनी जनसंख्या के अनुपात में सब जगह प्रतिनिधित्व नही मिल जाता। यह कार्य शासन एवं प्रशासन के कर्णधारो का है वंचित वर्ग का नही।