गरीब को न्याय व सम्मान हो लक्ष्य
गरीबी की कोई जाति नहीं होती परंतु देश में जाति पर आधारित जनगणना की मांग लगातार विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा उठाई जा रही है। जातिगत जनगणना की मांग कोई नयी नहीं है। जातिगत जनगणना की मांग विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा 1947 से लगातार की जा रही है। 1951 में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने जातिगत जनगणना की मांग एक सिरे से खारिज करते हुए ऐसी जनगणना को सामाजिक सौहार्द के लिए खतरनाक बताया था। क्या आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं सामाजिक न्याय और पिछड़ों के उत्थान के लिए अनेक अन्य रास्ते सरकारों के पास उपलब्ध हैं फिर जातिगत जनगणना पर इतना जोर आखिर क्यों दिया जा रहा है
जातिगत जनगणना देश की सामाजिक और राजनीतिक हालात को देखते हुए उचित प्रतीत नहीं होती। जातिगत जनगणना के आंकड़ों से राजनीतिक दल राजनीतिक समीकरण साधने का प्रयास करेंगे, पिछड़ों के विकास और सामाजिक न्याय का उद्देश्य गौण हो जायेगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा केंद्र सरकार को एक पत्र लिखा गया, जिसमें जातिगत जनगणना की मांग की गई है। तेजस्वी यादव ने भी नीतीश कुमार की मांग का समर्थन किया है। समाजवादी पार्टी शुरू से ही जातिगत जनगणना के पक्ष में है।
महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की महाआघाड़ी सरकार ने भी जातिगत जनगणना के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा है जिसे महाराष्ट्र के बीजेपी नेताओं का भी समर्थन है। तमिलनाडु सरकार द्वारा भी जातिगत जनगणना कराने के लिए प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया है। नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास, जो कि एक संवैधानिक संस्था है उसने भी जातिगत जनगणना कराने की मांग की है। 2018 में केंद्र सरकार ने भी 2021 में होने वाली जनगणना जाति आधारित हो सकती है, इस तरफ इशारा किया था, हालांकि अभी केंद्र सरकार जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में नहीं है। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने यह स्पष्ट किया है कि सरकार 2021 में होने वाली जनगणना में पिछड़े वर्ग की गणना कराने के पक्ष में नहीं है।
भारत में जनगणना आरंभिक रूप से 1872 में शुरू हुई थी परंतु प्रथम पूर्ण जनगणना 1881 में हुई। इसके बाद 1891, 1901, 1911, 1921, 1931 और 1941 में भी जातिगत जनगणना हुई थी। 1941 में द्वितीय विश्व युद्ध होने की वजह से आंकड़ों को पूर्ण रूप से संकलित नहीं किया जा सका। 1931 की जनगणना अंतिम जातिगत जनगणना थी जो भाषा, धर्म और जाति पर आधारित थी। हमारे पास आज जो जातियों और उनकी संख्या (प्रतिशत) के विषय में जानकारी उपलब्ध है उसका आधार 1931 में हुई जनगणना है।
1931 की जनगणना के अनुसार देश में अनुसूचित जाति (एससी) के लोगों की संख्या 15.5 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति (एसटी) 7 प्रतिशत और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की संख्या 52 प्रतिशत थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1931 के जनगणना के समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत के ही हिस्से थे, देश की जनसंख्या 27 करोड़ थी जो आज 140 करोड़ है। मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना को आधार मानते हुए ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लागू किया। वर्तमान में 1931 के जनगणना के अनुसार ही ओबीसी को 27 प्रतिशत, एससी को 15 प्रतिशत और एसटी को 7.5 प्रतिशत (कुल 49.5 प्रतिशत) आरक्षण दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक किसी भी हाल में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं दिया जा सकता। ऐसी स्थिति में पिछड़ों की संख्या जानने से क्या हासिल होगा।
देश की आजादी के उपरांत 1951 से लेकर 2011 तक संपन्न हुई कोई भी जनगणना जाति आधारित नहीं थी। 1951 से यह परंपरा बन गई कि जनगणना में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को शामिल किया जाएगा और इनकी संख्या की गणना की जाएगी। एससी और एसटी को छोड़कर किसी और जाति को जनगणना में शामिल नहीं किया जाएगा। 2011 में यूपीए सरकार ने जातिगत जनगणना के लिए अलग से एक सोशियो इकोनामिक एंड कास्ट सेंसस (एसईसीसी) कराने का निर्णय लिया। एसईसीसी में 640 जिलों में आने वाले सभी 24.49 करोड़ घरों को शामिल किया गया और इस पर 4894 करोड़ रुपए खर्च भी हुए। रिपोर्ट 2013 में आ भी गई परंतु आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया।
ओबीसी आरक्षण का फायदा अभी तक कुछ दर्जन जातियां ही उठा रही हैं, जबकि पिछड़े वर्ग में हजारों जातियां हैं। यदि ओबीसी में आने वाली बड़ी जातियां अपने लिए 27 प्रतिशत आरक्षण के अंदर अपनी संख्या के अनुसार 3 प्रतिशत, 4 प्रतिशत या 5 प्रतिशत आरक्षण की मांग करने लगीं तो उस स्थिति में सरकारों के लिए एक नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी। ओबीसी में आने वाली जातियां और उपजातियां हर राज्य में एक समान नहीं हैं।
संविधान निर्माताओं ने जाति रहित समाज की परिकल्पना की थी। आज जब जाति को खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए उस समय जाति पर आधारित जनगणना के लिए सरकार पर राजनीतिक हित हेतु राजनीतिक दलों द्वारा दबाव बनाया जा रहा है। जातिगत जनगणना से जाति प्रणाली को और मजबूती मिलेगी। सवर्ण सोशल माइनोरिटी में आ जाएंगे। देश में पिछड़े वर्ग से संबंधित लोगों की संख्या काफी बढ़ी है। ओबीसी की संख्या या प्रतिशत पता कर लेने से देश और समाज को क्या फायदा हो जाएगा यदि ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने के बाद संख्या घट गई तो क्या ओबीसी को प्रदत्त आरक्षण के प्रतिशत को कम कर दिया जाएगा या ओबीसी आबादी बढऩे की दशा में ओबीसी के आरक्षण के प्रतिशत को बढ़ा दिया जाएगा जातिगत जनगणना से जातिगत राजनीति नहीं बढ़ जाएगी
आज गरीबों की संख्या की गणना किए जाने की आवश्यकता है। देश में कितने गरीब हैं इनकी संख्या का पता लगाने से केंद्र और राज्य सरकारें गरीब वर्ग को न्याय दे पाएंगी। गरीब और गरीबी की कोई जाति नहीं होती है। यदि राजनीतिक दल सच में गरीब वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय दिलाना चाहते हैं तो उन्हें जातिगत जनगणना के बजाय आर्थिक रूप से जो गरीब हैं उनकी संख्या की गणना के लिए सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। देश में गरीबों की गणना होनी चाहिए ताकि उनको न्याय और सम्मान मिल सके।