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मनुष्य का किंगडम एनिमेलिया!

हरिशंकर व्यास

पृथ्वी के ह्यूमन बाड़े मतलब पशुवाद और पशुताएं। बाड़ों में वैयक्तिक तौर पर बिना व्यक्तित्व के व्यक्ति वक्त काटता है। अधिकतम लोग बिना मानव चेतना, बिना मानवाधिकारों, बिना समानता, बिना ज्ञान की होमिनिड प्रजातियां हैं। वे चिम्पांजी, लंगूर, भेड़-बकरी, सुअर, भेडिय़ों आदि की उन पशु प्रवृत्तियों को लिए हुए हैं, जिनके स्वभाव मनुष्य आचरण से जाहिर हैं।  अधिकांश लोग पराश्रित, पालतू व पिंजरों की जिंदगी गुजारते हैं। लोगों का जीवन भूख, भय, असुरक्षा, चिंताओं में सरकता, घसीटता, कैटल क्लास है। दिमाग गधेपन, अंधविश्वासों, झूठ, भक्ति, धर्म, राजनीति की परतंत्रताओं का बंधक होता है।
प्रलय का मुहाना- 15: खबरें हर रोज दिल दहलाते सवाल बनाती हैं कि मनुष्य कैसा जानवर है! यूक्रेन, सीरिया या महायुद्ध की बरबादियों के फोटो, यातनाओं के गुलग्स, कंसन्ट्रेशन कैंप, ऑस्चविट्ज, होलोकास्ट, 9/11 जैसे अनुभव व तारीखें क्या भुला सकते हैं? तभी मनुष्य के लिए जंगली, पाशविक, वहशी जैसे शब्द आम हैं। कहते हैं मानव सभ्यता बनने के तीन हजार सालों में 15 हजार से अधिक युद्ध हुए हैं। पिछले महायुद्ध में पांच करोड़ लोग मरे। उसके बाद परमाणु हथियार बने। वे भी इस तादाद में की पृथ्वी की आठ अऱब आबादी तो क्या 87 लाख किस्म के सभी जीव-जंतु किसी भी दिन कुछ बटनों के दबते ही श्मशान की राख होंगे। सोचें, वनमानुषों, प्राइमेट्स के वंशज मनुष्यों की खोपड़ी में यह आइडिया है कि जरूरत हुई तो परमाणु हथियारों का उपयोग होगा!
उफ! ऐसा दिमाग। तब मानव ज्ञानी या जंगली? वनमानुष, चिम्पांजी, ओरांगउटान, प्राइमेट्स, होमो इरेक्टस, होमो निएंडरथल, होमो सेपियन, होमो डायस की नामावली में मनुष्य प्रकृति की कितनी ही भिन्नताएं बूझें, कॉमन मानव प्रवृत्ति में मनुष्य ही मनुष्य पर सबसे अधिक हिंसा करने वाला पशु है। मनुष्य वह जानवर है जो अपनों पर भी जंगली प्रयोग करता है। वह आदमखोर और नरभक्षी है। तब इस वैज्ञानिक सत्य को क्यों न गांठ बांधें की शारीरिक तौर पर मनुष्य सचमुच पशु प्रजाति है। जंगली है, पाशविक है। मनुष्य और चिम्पांजी के गुणसूत्र याकि जीन 98.8 प्रतिशत यदि एक जैसे हैं तो स्वाभाविक है मनुष्य के हाथों किंगडम एनिमेलिया बने। पशुवाद की पशुताओं, पाशविकताओं का नरक बने।
खोपड़ी और पशुता
सवाल है मनुष्य खोपड़ी में वनमानुष से एक-सवा प्रतिशत डीएनए की जो भिन्नता है वह जंगलीपने को उभारते हुए है या वे मानव संस्कार हैं, जिससे पशुता दबती, ढकती है? उनके कारण मनुष्यों में वह बायोडायवर्सिटी है, जिससे जंगली और सभ्य इंसान, गंवार और ज्ञानी इंसान की भिन्नताएं जन्मजात हैं? एक पहलू चिम्पांजी बनाम मनुष्य के डीएनए की समानताओं से दोनों के समान पशुगत व्यवहार का है। दूसरा पहलू असमान एक-सवा प्रतिशत डीएनए से मनुष्य की स्पिल्ट पर्ननाल्टी के गैर-पशु वाला मानव स्वभाव है। तीसरा पहलू लाखों सालों के जीवन के परिवेश, अनुभवों से मनुष्य डीएनए में परिवर्तनों का है।
स्तनपायी मैमेल की वंशानुगतता में वनमानुषों, प्राइमेट्स से मनुष्य सफर का आरंभ है। जेनेटिक आधार पर खोपड़ी के आकार, फिर ‘सोशल ब्रेन हाइपोथीसिस’ व ‘डाइट हाइपोथीसिस’ की थ्योरी में दिल-दिमाग के अलग-अलग विकास की वैज्ञानिक मान्यता है। मगर इस विवाद के साथ कि दिमाग के भीतर बुद्धि पहले से भरी हुई है या नहीं? मानव सभ्यता का बर्बर इतिहास बताता है कि खोपड़ी में पशुता वनमानुषों के डीएनए से चली आ रही है। मतलब पशु बुद्धि पहले से भरी हुई है। खोपड़ी कैसी भी हो, छोटी या बड़ी, उसके एक अहम छोटे नियोकॉर्टेक्स हिस्से से बुद्धि के कम-अधिक होने, बुद्धिमत्ता के अलग-अलग लेवल और इवोल्यूशन मनुष्य के व्यवहार में निर्णायक हैं। कॉग्निटिव डेवलपमेंट की इन पेचीदगियों व मानव इतिहास के अनुभव से मान लेना चाहिए कि न तो मनुष्य ज्ञानी मानव (होमो सेपियन) है और न वह जल्दी देव मानव (होमो डायस) बनने वाला है। पशुजन्य वंशानुगतता से मनुष्य खोपड़ी प्राइमेट्स की अवस्थाओं के अलग-अलग संस्करणों का किंगडम एनीमेलिया बनाए हुए है। जिंदगी पशुवाद से है। उसमें विविधिता है, बायोडायवर्सिटी है। लेकिन आम मनुष्य प्रकृति में किसी भी तरह से मानवजन्य मानवता के स्वभाव की सर्वोच्चता नहीं है। यह निश्चित है कि मनुष्य का भविष्य उसके अतीत से है। कह सकते हैं कि मनुष्य की पाशविकताओं जंगल के उसके इतिहास से है। इसलिए पृथ्वी संकट में है और भविष्य का नरक है!
सोचने वाली बात है कि पिछले छह हजार सालों के इतिहास और अनुभव में मनुष्य की खुशियों और सुख-शांति-संतोष की अवधियां कौन-कौन सी थीं?
आदमखोर और नरभक्षी
मनुष्य को मष्तिष्क चेतना, पंख, बुद्धि का वरदान है। गड़बड़ यह है कि वह सबको समान रूप से प्राप्त नहीं है। दूसरे इससे ज्ञान-विज्ञान के उपयोगकर्ताओं ने मानव की परतंत्रता बनवाई। यांत्रिकता बनवाई। तभी विकास उन प्रवृत्तियों को लिए हुए है, जिनके कारण अधिकतम लोग यांत्रिक जड़ताओं में जीते हैं और मनुष्य की सामूहिकता पशुता बन जाती है।
पृथ्वी के बायोमास में मनुष्य वह जीव है, जिसका इतिहास आदमखोर और नरभक्षी व्यवहार का है। वह अपने परिवार, कुनबे, जाति, समाज, देश के लोगों की हत्या और नरसंहार करता है। मनुष्य ने अपने कुल, वंश, जात के प्राणियों को असुरक्षा, पीड़ा, भय और खौफ, हत्या के जितने दुख और क्लेश दिए हैं वैसा पृथ्वी के पशु समाज में दूसरे किसी पशु का व्यवहार नहीं है। मनुष्य को ज्ञान के आशीर्वाद में पुण्य, सत्य, मानवता का बोध है लेकिन बावजूद इसके वह पाप, झूठ और अमानुषी व्यवहार बनाए होता है। वह पृथ्वी को मां और पिता, मातृभूमि और पितृभूमि कहता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का राग आलापता है लेकिन न मातृभूमि की लाज रखता है और न अपने बाड़े में दूसरे मनुष्य को घुसने देता है।
तभी पृथ्वी के ह्यूमन बाड़ों में पशुवाद और पशुताएं हैं। बाड़ों में वैयक्तिक तौर पर बिना व्यक्तित्व के व्यक्ति वक्त काटता है। अधिकतम लोग बिना मानव चेतना, बिना मानवाधिकारों, बिना समानता, बिना ज्ञान की होमिनिड प्रजातियां है। वे चिम्पांजी, लंगूर, भेड़-बकरी, सुअर, भेडिय़ों आदि की उन पशु प्रवृत्तियों को लिए हुए हैं, जिनके स्वभाव मनुष्य आचरण से जाहिर होते हैं। अधिकांश लोग पराश्रित, पालतू व पिंजरों की जिंदगी जीते हैं। भूख, भय, असुरक्षा, चिंताओं में लोगों का जीवन सरकता, घसीटता, कैटल क्लास वाला होता है। दिमाग गधेपन, अंधविश्वासों, झूठ, भक्ति, धर्म, राजनीति की परतंत्रताओं का बंधक होता है।
सचमुच पृथ्वी के आठ अरब लोगों की आबादी में अधिकतम मनुष्यों के बस में कुछ भी नहीं है। उनकी दिनचर्या, उनके कर्म और विचार सब यंत्र चालित हैं। बकौल आचार्य रजनीश जैसे कोई बटन को दबा दे और बिजली जल जाए, कोई मोटर को चला दे और मोटर चल जाए। मनुष्य एक यंत्र की भांति जीता है। साधारणत: वह सोचता है कि मैं जो कर रहा हूं मैं कर रहा हूं।ज् बड़ी अचेतन, बड़ी अनकांशस शक्तियां हमारे भीतर काम करती हैं और वे हमें ढकेलती हैं एक दिशा में, धक्के देती हैं, और हम उसके साथ में चले जाते हैं।
विषयांतर हो रहा है। मोटा मोटी मनुष्य सफर छह हजार वर्षों से पटरियों पर यांत्रिकता में दौड़ता चला जा रहा है। न उसका गति पर कंट्रोल है और न मंजिल की सुध है।
तब कैसे आठ अरब लोगों के लिए ‘ज्ञानी मानव’ उर्फ होमो सेपियन की संज्ञा उचित है? पृथ्वी के आठ अरब लोग ज्ञान में जीते हुए क्या और कहां हैं? क्या लोग, पशु जीवन से अलग, बेहतर, श्रेष्ठ जिंदगी जीते हुए हैं? मनुष्य और मनुष्य में तुलना नहीं, बल्कि पशु बनाम मनुष्य की तुलना के अनुभवों पर जरा गौर करें। मनुष्य बनाम मनुष्य में भेद, उनकी असमानताओं का तो मामला ही विकट! मानव सभ्यता की शर्मनाक असलियत है जो वह पूर्वज चिम्पांजियों से अधिक परस्पर असमानताओं में जिंदगी जीते हुए है। कितने तरह के जानवर स्वभाव में बंटे हुए हैं मनुष्य! बहुसंख्यक लोग भेड़-बकरियों की कैटल क्लास। फिर मोटे सुअरों की बिजनेस क्लास तो तीसरी पायलट-गड़ेरियों की वह क्लास जो जंगल की प्रजा को चाहे जिस दिशा में ले जाए! हिटलर, पुतिन कहें चलो, उठाओ हथियार तो मनुष्यों द्वारा मनुष्यों का संहार!
सभी ‘होमो सेपियन’ नहीं!
वनमानुष, होमिनिड के कुल देवताओं ने सिर्फ छह हजार सालों में पृथ्वी पर यांत्रिक, ऑटोमेटिक व्यवस्था बनाई है। इसमें मनुष्य डीएनए के सीपीयू में अपने अतीत, वंशानुगत कहानियों, परिवेश के अनुसार व्यवहार और आचरण करता है। भ्रम है कि पृथ्वी के सभी लोग एक सी मानसिक अवस्था के हैं। एक से परिवेश में जीते हैं। एक सी प्रवृत्तियों, एक सी मेधा, एक सी जेनेटिक संरचना लिए हुए हैं। सभी ‘ज्ञानी मानव’ याकि ‘होमो सेपियन’ हैं। यह धारणा गलत है। मनुष्यों की जैविक रचना की असलियत बायोडायवर्सिटी है। इसलिए वनमानुष, मानुष, होमो, होमिनिड नाम के कुल देवताओं के अलग-अलग वंशजों की प्रजातियों का पृथ्वी पर वह ह्यमून बाड़ा बना है, जिसके भीतर की भिन्नताओं से किंगडम एनिमेलिया की कई चारदिवारियां हैं। पशुवाद के अलग-अलग रूप हैं।
यह सब प्रत्यक्ष है। छह हजार सालों के लिखित इतिहास की मानव त्रासदियां हैं।
पर मनुष्य सत्य मानने को तैयार नहीं। मनुष्य की खोपड़ी में, उसके अतीत की यह स्मृति भरी हुई है कि वह बलवान है। ‘सरवाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट’ याकि योग्यतम-सर्वश्रेष्ठ के ही जिंदा रहने की विजयी गाथा का प्राणी है तो वह भला पशु कैसे! वह श्रेष्ठ-ज्ञानी मानव है। ईसा पूर्व सन् 6000 से लेकर ईसा बाद सन् 1850 के कोई आठ हजार सालों में मनुष्य ने पशुपालन, पशु भोजन से अपनी स्मृतियों में अपनी श्रेष्ठता पाली हुई है। उसने शेर, हाथी, तोता-मैना आदि जीव-जंतुओं को मारा, पिंजरों में बंद किया, पालतू बनाया तो मनुष्य में अहम क्यों न बने? वह सबको काबू में कर सकने वाला मालिक। वह औजार, लाठी, तीर लिए हुए तो पशु जगत उसके आगे कहां टिकता है। वह ताकतवर, वह स्वामी, स्वामित्व का हकदार, पिंजरे बना सकने, पालतू बना सकने की खोपड़ी लिए हुए तो स्वाभाविक है जो 98.9 प्रतिशत पशु जीन होने, पशुगत प्रवृत्तियों के बावजूद मानता है कि वह ज्ञानी मानव!
मनुष्य खोपड़ी का यह भ्रम ही मनुष्यों में भेद बनाए हुए है। जगंल के जीवन में पशुओं से बचते, लड़ते-भिड़ते, उन्हें काबू करने, पालतू बनाने, शिकार, पशुपालन के आरंभ के तमाम अनुभवों को होमिनिड के वंशानुगत मनुष्यों ने संग्रहित करते हुए अहंकारी खोपडिय़ों में ख्याल बना कि ऐसे ही दूसरे कबीले के मनुष्यों पर स्वामित्व बनाया जा सकता है। उन्हें पिंजरों में रखा जा सकता है। पालतू बनाया जा सकता है। जब औजार, लाठी और हथियार से जंगल के शेर, चीते, भालू, हाथी कंट्रोल होते हैं। उनका उपयोग संभव है तो दूसरे कबीले, दूसरे लोगों पर वैसे ही कब्जा, वैसा ही उपयोग क्यों संभव नहीं है?
सचमुच जंगल के किंगडम ऑफ एनिमेलिया से ही किंगडम ऑफ ह्यूमन एनिमेलिया निकला है। जंगल में ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ की प्रतिस्पर्धा और नियति में ही मनुष्यों के मध्य ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ से सभ्यताओं का बनना शुरू हुआ है। सभ्यताओं का विकास और पतन हुआ है। वहीं इतिहास है, वर्तमान है।
कृषि और मनुष्य प्रकृति
इस दास्तां के दो अध्याय हैं। पहला अध्याय औजार, आग और शिकार, पशुपालन से मनुष्य के जंगल का राजा बनने का है। दूसरा, खेती शुरू करने के बाद मनुष्य द्वारा पशु पर विजयी होने के अनुभव को मनुष्यों पर आजमाने का अध्याय। पहला अध्याय ईसा पूर्व सन् 6000 से पहले के कालखंड का है। तब पशुपालन, शिकार और जंगल का मनुष्य जीवन था। ताजा पुरातात्विक खोज अनुसार ईसा पूर्व सन् 6000 के बाद सुमेर से सिंधु घाटी के मध्य के उर्वर त्रिकोण में खेती शुरू हुई। तब मनुष्य बस्ती, कबीलाई गांव बने, जिनसे मनुष्यों में जंगल व्यवहार बना। मनुष्यों में परस्पर रिश्तों में औजार, तीर, लाठी का उपयोग शुरू हुआ।
सभ्यता बननी शुरू हुई। मनुष्य बनाम मनुष्य के व्यवहार में औजार, लाठी और हथियार के उपयोग की दिमागी खुराफातों में ही कोई ढाई हजार साल पहले प्लेटो ने मनुष्य को पॉलिटिकल एनिमल करार दिया। उसके बाद तो वह मानव निर्माण हुआ, जिससे मानवीय रिश्ते स्थायी तौर पर शासक बनाम शासित, मालिक बनाम गुलाम और चमत्कार को नमस्कार वाले बने।
इसलिए लाखों-करोड़ों सालों के पृथ्वी अस्तित्व, होमो सेपियन के दो लाख सालों के सफर में मनुष्य का बिगडऩा या उसका विकास कुल जमा पिछले चार से दस हजार सालों की कालावधि है। जहां तक मनुष्य के अचानक भस्मासुर बनने की बात है तो वह ढाई सौ साल पुरानी औद्योगिक क्रांति से है। ढाई सौ साल पहले जलवायु, पर्यावरण, पृथ्वी सब सामान्य थे। उसके बाद देखते-देखते मनुष्य की पांच-दस पीढिय़ों में पृथ्वी खौलती हो गई है तो मूल वजह जंगली प्रवृत्तियों का मनुष्य अहंकार है। मनुष्य की यांत्रिकता है। मतिभ्रम में उसका बेलगाम जीना है। विकास से विनाश बनाना है। देवर्षियों, ज्ञानी-विज्ञानियों के ज्ञान-विज्ञान के आशीर्वादों का भस्मासुरी हो जाना है।