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आम आदमी जैसा बजट का हश्र

सहीराम

बजट का हाल भी आम आदमी जैसा हो ही गया है जी! जैसे आम आदमी को कोई नहीं पूछ रहा, वैसे ही बजट को भी कोई नहीं पूछ रहा। माना जा रहा है कि भैया चुनाव के वक्त आएगा, तो बजट का हाल भी वैसा ही होगा, जैसा चुनाव के वक्त नेता का हो जाता है। बोले तो आम आदमी से भी बुरा। जिस नेता की छाया तक में कोई नहीं पहुंच सकता, चुनाव के वक्त उसी नेता को ऐसे कोंचा जाता है जैसे तमाशा दिखाने के लिए मदारी बंदर को कोंचता है। अमृत काल के बजट का हाल अमृत काल के लोकतंत्र-सा हो गया है। वरना जनाब एक जमाना था जब बजट के इस सीजन में बजट आने से एक महीने पहले उसकी चर्चा शुरू होती थी और कम से कम एक महीने बाद तक तो चलती ही थी। उस जमाने में बजट का हाल कुछ-कुछ जुबली फिल्म जैसा होता था। हाल तो उसका अब भी किसी फिल्म जैसा ही है। फर्क बस यही है कि जैसे अब फिल्म एक हफ्ते में उतर जाती है, वैसे ही बजट पर चर्चा भी अब एक हफ्ते से ज्यादा नहीं चलती। टीवी चैनलों के पास अब अर्थशास्त्रियों के पैनल नहीं होते, उन लोगों के होते हैं जो मुर्गों की तरह लडऩे में माहिर होते हैं।
एक जमाने में बजट का जलवा ऐसा था जनाब कि संसद सत्र का नाम तक बजट सत्र पड़ गया था। लेकिन अब इसमें बजट पर सिर्फ इतनी ही चर्चा होती है कि सरकारी पक्ष इसे सर्वोत्तम बताता नहीं थकता और विपक्ष इसे बदतरीन करार देता नहीं थकता। सत्ता पक्ष आंकड़े देकर इसकी श्रेष्ठता साबित करने की कोशिश करता है तो विपक्ष तो सरकार के आंकड़ों को ही फर्जी मानता है। एक जमाने में फर्जी मतदान होता था, फर्जी एनकाउंटर होते थे। अब फर्जी आंकड़े होते हैं। वरना उस जमाने को याद कीजिए जनाब जब पनवाड़ी तक को बजट आने का इंतजार रहता था और बजट आते ही वह सिगरेट का दाम फौरन बढ़ा देता था। मध्यवर्ग बजट आने के दिन टीवी से चिपका रहता था जैसे सारी अर्थव्यवस्था का ज्ञान उसी के पास है। लेकिन उसकी दिलचस्पी सिर्फ इतनी ही होती थी कि आयकर की सीमा बढ़ी या नहीं। अब तो बेचारे उसने भी यह उम्मीद छोड़ दी है। पहले बजट और महंगाई का एक खास रिश्ता होता था। अब महंगाई ने बजट का हाल कुछ-कुछ परित्यक्ता जैसा कर दिया है। महंगाई अब बजट आने का इंतजार नहीं करती और बजट है कि उस पर अंकुश लगाने के बारे में सोचता तक नहीं। अब बजट का काम इतना बताना भर रह गया लगता है कि सरकारी कंपनियों की कितनी हिस्सा-पत्ती बेची जाएगी। बजट अब एक रस्म है। लेकिन यूं तो लोकतंत्र भी एक रस्म ही है। हालांकि जहां तानाशाही होती होगी वहां भी बजट तो होता ही होगा। लेकिन फिर ऐसे रस्म भी होती होगी।
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